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गांधी साहित्य (27 जुलाई 2018), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
मोहनदास करमचंद गांधी

प्रथम खंड : 5. मुसीबतों का सिंहावलोकन- 2

ट्रांसवाल और अन्य उपनिवेश

नेटाल की तरह दक्षिण अफ्रीका के दूसरे उपनिवेशों में भी हिंदुस्तानियों के प्रति गोरों की नापसंदगी कम-ज्यादा मात्रा में 1880 से पहले ही बढ़ने लगी थी। केप कॉलोनी के सिवा दूसरे उपनिवेशों में गोरों की एक ही राय बनी थी कि मजदूरों के नाते तो हिंदुस्तानी बड़े अच्छे हैं; परंतु बहुतेरे गोरों के मन में यह बात स्वयंसिद्ध सत्य की तरह जम गई थी कि स्वतंत्र हिंदुस्तानियों के आने से दक्षिण अफ्रीका को केवल नुकसान ही होता है। ट्रांसवाल प्रजासत्ताक राज्य था। वहाँ के प्रेसिडेंट के सामने हिंदुस्तानियों का यह कहना हास्यास्पद बनने जैसा था कि हम ब्रिटिश प्रजाजन कहलाते हैं। हिंदु‍स्तानियों को कोई भी शिकायत करनी हो तो वे केवल प्रिटोरिया स्थित ब्रिटिश राजदूत (एजेंट्स) के सामने ही कर सकते थे। ऐसा होते हुए भी आश्चर्य की बात तो यह है कि ट्रांसवाल के ब्रिटिश साम्राज्य से बिलकुल अलग होने पर ब्रिटिश राजदूत हिंदुस्तानियों की जो मदद कर सकता था, वह ट्रांसवाल के ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आ जाने पर बिलकुल खतम हो गई। जिस समय लॉर्ड मोर्ले भारत-मंत्री थे उन दिनों ट्रांसवाल के हिंदुस्‍तानियों की वकालत करने के लिए एक प्रतिनिधि-मंडल उनके पास गया था। तब लॉर्ड मोर्ले ने उसके सदस्यों से स्पष्ट शब्दों में कहा था : 'आप जानते हैं कि उत्तरदाई शासन-तंत्र वाले उपनिवेशों पर बड़ी (साम्राज्य) सरकार का नियंत्रण बहुत कम है। स्वतंत्र राज्यों को बड़ी सरकार युद्ध की धमकी दे सकती है - उनके साथ युद्ध भी कर सकती है, परंतु उपनिवेशों के साथ तो सिर्फ सलाह-मशविरा ही हो सकता है। उनके साथ बड़ी सरकार का संबंध रेशम की डोर से बँधा हुआ है, जो थोड़ा भी खींचने से टूट सकती है। उनके साथ बल से तो काम लिया ही नहीं जा सकता; हाँ, कल से (युक्ति से) जो कुछ करना संभव है उतना सब करने का मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ।' जब ट्रांसवाल के विरुद्ध युद्ध घोषित किया गया तब लॉर्ड लैंड्स डाउन, लॉर्ड सेलबोर्न वगैरा ब्रिटिश अधिकारियों ने कहा था कि युद्ध करने के अनेक कारणों में एक कारण ट्रांसवाल के हिंदुस्तानियों की दुखद स्थिति भी है।

अब हम देखें कि ट्रांसवाल के हिंदुस्तानियों का दुख क्या था? ट्रांसवाल में हिंदुस्तानी पहले-पहल सन् 1881 में दाखिल हुए थे। स्व. सेठ अबूबकर ने ट्रांसवाल की राजधानी प्रिटोरिया में दुकान खोली और उसके एक मुख्य मुहल्ले में जमीन भी खरीदी। उसके बाद दूसरे हिंदुस्तानी व्यापारी भी एक के बाद एक वहाँ पहुँचे। उनका व्यापार धड़ल्ले से चलने लगा, इस कारण गोरे व्यापारियों को उनसे ईर्ष्या होने लगी। अखबारों में हिंदुस्तानियों के खिलाफ लेख, पत्र वगैरा लिखे जाने लगे और...

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अथाह अंतरिक्ष
स्कंद शुक्ल

एक मत है कि ब्रह्मांड का आरंभ बिग बैंग पर नहीं हुआ था। अर्थात् उसके पहले भी समय का अस्तित्व था। ऐसा मानने वाले कई विद्वान यह मत रखते हैं कि हमारा ब्रह्मांड किसी अन्य ब्रह्मांड के संकुचन से जन्मा है। यानी कोई अन्य ब्रह्मांड था, जिसका फैलाव सिकुड़ा और सिकुड़ते-सिकुड़ते एक बिंदु में जा सिमटा। इस बिंदु को सैद्धांतिक भौतिकी सिंग्युलैरिटी के नाम से पुकारती है। सिंग्युलैरिटी पर जाकर हमारे सारे भौतिकी के नियम ध्वस्त हो जाते हैं। वह एक न्यूनतम आकार का यूनिडाइमेंशल किंतु असीम घनत्व का स्थान है। वहाँ न न्यूटन चलते हैं, न आइंस्टाइन। वहाँ प्लैंक का क्वांटम भी नहीं चलता। या शायद सभी नियमों को एकीकृत करने पर जो एकीकृत सिद्धांत भौतिकी गढ़ने के प्रयास में है, वह चलता हो। हम नहीं जानते। नहीं जानते, इसलिए दावा नहीं कर सकते। या शायद पूर्व का वह ब्रह्मांड सिकुड़ा हो, लेकिन एक बिंदु तक न सिमटा हो। पहले ही बढ़ने लगा हो और बढ़ते-बढ़ते आज सा हो गया हो। या फिर यह एक अनवरत चलता क्रम हो जिसमें एक ब्रह्मांड सिकुड़ता हो और फिर उससे दूसरा जन्म ले लेता हो। संकुचन-विस्तार, विस्तार-संकुचन, संकुचन-विस्तार, लगातार...

निबंध
हजारी प्रसाद द्विवेदी
वर्षा : घनपति से घनश्‍याम तक

कहानियाँ
मनीष वैद्य
खिरनी
घड़ीसाज
फुगाटी का जूता
डेमोक्रेसी... डेमोक्रेसी
टुकड़े-टुकड़े धूप
गों...गों...गों...

आलोचना
सर्वेश सिंह
निर्मल वर्मा की साहित्य-दृष्टि

विमर्श
निधि तिवारी
कविता में स्त्री
मधुछंदा चक्रवर्ती
स्त्री जीवन के संघर्ष को उजागर करता नाटक : लप्या

विशेष
उमा यादव
‘लोकल टू ग्लोबल’ का पक्षधर है सामुदायिक रेडियो

रंगमंच
अमितेश कुमार
इब्राहिम अल्काजी के रंग चिंतन से गुजरते हुए

कविताएँ
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ISSN 2394-6687

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